टकराव का कारण “वाद” है, वाद के मूल में आखिर क्या है?
पूरी दुनिया का हर देश और हर देश की जनसंख्या विभिन्न वादों में बटी हुई है। जब किसी विचार के प्रति आग्रह एक सीमा से अधिक बढ़ जाता है तो अंततः एक “वाद” का निर्माण हो जाता है।
जब तक आप का दृष्टिकोण किसी विचार के प्रति सहमति भाव तक सीमित रहता है तब तक आपकी वैचारिक उन्नति के पूर्ण अवसर रहते है लेकिन जब आप किसी विचार के समक्ष अन्य समस्त विचारों को कमतर समझने लगते है तब आप मे रूढ़ता विकसित होने लगती है लेकिन जब आप किसी विचार के अलावा अन्य विचारों से नफरत करने लगते है तब “वाद” का जन्म होता है।
1980 के समय दुनिया पूंजीवाद और साम्यवाद के नाम पर दो खेमो में विभक्त दिखाई देने लगी थी। अमेरिका और सोवियत संघ इन दोनों विचारों के नेतृत्व को देख रहे थे। दुनिया के सामने तीसरे विश्वयुद्ध का खतरा प्रत्यक्ष था जो कि सोवियत संघ के विघटन के साथ लगभग समाप्त हो चुका है।
अनेक प्रकार के “वाद” हम विश्व मे प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते है। नस्लवाद, जातिवाद, आतंकवाद, भाषावाद के अलावा अनेकों किस्म के वाद समाज मे आम है। इन वादों ने मनुष्य की मनुष्यता को बेड़ियों में बांध दिया है। हालात यहाँ तक पहुंच गए है कि विश्व मे एक बड़ा तबका अब मानवतावाद की भी बात करने लग गया है।
आखिर ये वाद क्यों पनप रहे है? इनको कोनसी शक्तियां उत्प्रेरित कर रह है? इनको सरंक्षण कौन दे रहा है?
इन वादों के जन्म का मुख्य कारण शिक्षा व सामाजिक संस्कारो के मध्य तालमेल का अभाव है। सामुहिक व औपचारिक शिक्षा व्यवस्था में विद्यार्थियों को मनुष्यता के सर्वमान्य मूल सिद्धांत समझाए जाते है जबकि परिवार व छोटे पीयर ग्रुप्स में स्वयं की श्रेष्ठता अथवा स्वयं की पीड़ा की सीख दी जाती है।
इस प्रक्रिया में एक अबोध मन का झुकाव उस तरफ हो जाता है जिस तरफ स्वयम के प्रियजन खड़े दिखाई पड़ते है एवम वह अबोध मन भी मौलिक शिक्षा व नियमों को त्याग करके किसी ना किसी “वाद” का हामी हो जाता है।
छोटे समूह में मिलने वाली सीख का मूल कारण “स्वार्थ” है। स्वार्थ की भावना ही मनुष्य को संसाधनो पर अधिकतम नियंत्रण करने हेतु प्रेरित करती है। अपने नियंत्रण को उचित सिद्ध करने हेतु विभिन्न प्रयास किये जाते है। इन प्रयासों की कड़ी से विरोध व विरोध से वर्ग संघर्ष आरम्भ होते है।
आप का क्या “वाद” है?