
भारतीय सनातन ज्ञान विश्व मे सबसे प्राचीन है। अष्ट्रावक्र गीता में उन तीन प्रश्नों का उत्तर दिया गया है जो कि हमारे अस्तित्व से जुड़े हुए है। हमको इन प्रश्नों का मर्म व उनका महान ऋषि अष्ट्रावक्र द्वारा प्रदान किया उत्तर एक बार जरूर पढ़ना व मनन करना चाहिए। ये प्रश्नोत्तर राजा जनक व महान ऋषि अष्ट्रावक्र के मध्य हुआ था। इनका उल्लेख अष्ट्रावक्र गीता में है। ये प्रश्नोत्तर हमारी सोच को पूर्णतया बदलने में सक्षम है। आइये, पूर्ण जानकारी लेने का एक प्रयास करते है।

अष्टावक्र गीता क्या हैं ? | What is Ashtavakra Gita?
अष्टावक्र गीता अदैत वेदांत का ग्रंथ है जो ऋषि अष्टावक्र और राजा जनक के संवाद के रूप में एक अमूल्य ग्रन्थ है । अष्टावक्र गीता को भारतीय जनमानस में बहुत पूजनीय माना जाता है. सनातन परम्परा में श्रीमद्भगवद् गीता के बाद अगर किसी गीता को सबसे ज्यादा सुना गया है तो उसका नाम अष्टावक्र गीता ही है. अष्टावक्र गीता में भी जीवन के रहस्यों को समझाने का प्रयास बहुत सरल तरीके से किया गया है। आइये, इसके लिए हम सबसे पहले अष्टावक्र ऋषि के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त करते है।
अष्ट्रावक्र ऋषि कौन थे ? | Who was Ashtravakra Rishi ?

अष्टावक्र की माता का नाम सुजाता था। उनके पिता कहोड़ वेदपाठी और प्रकांड पंडित थे तथा उद्दालक ऋषि के शिष्य और दामाद थे। उनसे कोई शास्त्रार्थ में जीत नहीं सकता था। अष्टावक्र जब गर्भ में थे तब रोज उनके पिता से वेद सुनते थे। एक दिन उनसे रहा नहीं गया और गर्भ से ही कह बैठे- ‘रुको यह सब बकवास, शास्त्रों में ज्ञान कहाँ? ‘ज्ञान तो स्वयं के भीतर है। सत्य शास्त्रों में नहीं स्वयं में है। शास्त्र तो शब्दों का संग्रह मात्र है।’
यह सुनते ही उनके पिता क्रोधित हो गए। पंडित का अहंकार जाग उठा, जो अभी गर्भ में ही है उसने उनके ज्ञान पर प्रश्नचिह्न लगा दिया। पिता तिलमिला गए। उन्हीं का वह पुत्र उन्हें उपदेश दे रहा था जो अभी पैदा भी नहीं हुआ। क्रोध में अभिशाप दे दिया- ‘जा…जब पैदा होगा तो आठ अंगों से टेढ़ा होगा।’ इसीलिए उनका नाम अष्टावक्र पड़ा।
अष्ट्रावक्र ऋषि के बारे में हम विस्तार से फिर किसी दूसरे आलेख में बात करेंगे , अभी हमुनके द्वारा रचित अष्ट्रावक्र गीता नामक ग्रन्थ में वर्णित तीन प्रश्नोंके उत्तर पर चर्चा करेंगे।
अष्ट्रावक्र गीता नामक पवित्र ग्रन्थ | The holy book called Ashtravakra Gita
अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्त का ग्रन्थ है जो ऋषि अष्टावक्र और राजा जनक के संवाद के रूप में है। भगवद्गीता, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र के सामान अष्टावक्र गीता अमूल्य ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में ज्ञान, वैराग्य, मुक्ति और समाधिस्थ योगी की दशा का सविस्तार वर्णन है।
अष्टावक्र गीता को भारतीय जनमानस में बहुत पूजनीय माना जाता है. सनातन परम्परा में श्रीमद्भगवद् गीता के बाद अगर किसी गीता को सबसे ज्यादा सुना गया है तो उसका नाम अष्टावक्र गीता ही है. अष्टावक्र गीता में भी जीवन के रहस्यों को समझाने का प्रयास बहुत सरल तरीके से किया गया है.
अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्त का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है. जैसे भगवत गीता में अर्जुन प्रश्न पूछते हैं और कृष्ण उत्तर देते हैं, वैसे ही अष्टावक्र गीता में जनक जी प्रश्न पूछते हैं और अष्टावक्र जी उत्तर देते हैं.
अष्टावक्र गीता में कुल 20 अध्याय हैं. इस पुस्तक को वेदान्त का शिखर माना जाता है. वेदान्त दरअसल ज्ञानयोग की एक शाखा है. वेदान्त का आधार उपनिषद माने जाते हैं और यहां ज्ञान के माध्यम से ईश्वर और मुक्ति को प्राप्त करने का साधन किया जाता है.
इस ग्रन्थ का प्रारंभ राजा जनक द्वारा किये तीन प्रश्नों से होता है…..
अष्ट्रावक्र गीता के तीन प्रश्न जिनका उत्तर हम सभी हेतु महत्वपूर्ण है। Three questions of Ashtravakra Gita whose answer is important for all of us.
कथं ज्ञानमवाप्नोति, कथं मुक्तिर्भविष्यति |
वैराग्य च कथं प्राप्तमेतद ब्रूहि मम: प्रभो ||
भावार्थ:- राजा जनक बालक अष्टावक्र से कहते हैं कि…
१. ज्ञान कैसे प्राप्त होता है?
२. मुक्ति कैसे होगी?
३. वैराग्य कैसे प्राप्त होगा? ये सब मुझे बताएं |
ऋषि अष्टावक्र ने इन्हीं तीन प्रश्नों का संधान राजा जनक के संवाद के रूप में किया है जो अष्टावक्र गीता के रूप में प्रचलित है।
ज्ञान कैसे प्राप्त होता है? | How is knowledge acquired?
अष्टावक्र एवं राजा जनक के संवाद के सूत्र आत्मज्ञान के सबसे सीधे और सरल वक्तव्य है जिनमें ज्ञान-मार्ग को प्रदर्शित किया गया है। ये सूत्र ज्ञानोपलब्धि के, ज्ञानी के अनुभव के सूत्र हैं । स्वयं को केवल जानना, ज्ञानदर्शी होना, कोई आडंबर नहीं, आयोजन नहीं, यातना नहीं, यत्न नहीं, बस जाना वहीं जो हो।
ज्ञान की प्राप्ति ही मनुष्य का वास्तविक लक्ष्य है । वास्तविक ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान है, वही मनुष्य की सच्ची शक्ति है । वास्तविक ज्ञान ही जीवन का सार और आत्मा का प्रकाश है ।
हर्तुर्याति न गोचरं किमपि शं पुष्णाति यत्सर्वदा,
ह्यार्थिभ्य: प्रतिपाद्यमानमनिशं प्राप्नोति वृद्धिं पराम्!
कल्पान्तेष्वपि न प्रयाति निधनं विद्याख्यमन्तर्धन,
येषां तान्प्रति मानमुञ्झत नृपा:कस्तै: सह स्पर्धते!!
भावार्थ:-हे राजन! ज्ञान अद्भुत धन है, ये आपको एक ऐसी अद्भुत खुशी देता है जो कभी समाप्त नहीं होती । जब कोई आपसे ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा लेकर आता है और आप उसकी मदद करते हैं तो आपका ज्ञान कई गुना बढ़ जाता है ।शत्रु और आपको लूटने वाले भी इसे छीन नहीं पाएंगे, यहाँ तक की यह इस दुनिया के समाप्त होने पर भी खत्म नहीं होगा । अत: हे राजन! आप अपना अहंकार त्याग दीजिये और समर्पित हो जाइये ।
मनुष्य शरीर, मन,बुद्धि और अहंकार में ही जीता है, जिससे उसे सुख-दुःख का अनुभव होता है । जबकि मनुष्य इनमें से कोई नहीं है, वह विशुद्ध चैतन्य है । शरीर में स्थित यह चैतन्य आत्मा एवं विश्व की समस्त आत्माओं में एकत्व भाव ही ब्रह्म है, दोनों अभिन्न है ।
आत्मा साक्षी विभु:पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रिय:!
असंगो नि:स्पृह: शान्तो भ्रमात्संसारवानिव!!
भावार्थ:- आत्मा साक्षी, सर्वव्यापी, पूर्ण, एक, मुक्त, चेतन, अक्रिय, असंग, इच्छा रहित एवं शांत हैं ।भ्रमवश ही ये सांसारिक प्रतीत होती है।
आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए चेतना के सभी स्तरों…. चेतन, अवचेतन और अचेतन को जानना आवश्यक है ।
मनुष्य को चाहिए कि सदैव निस्वार्थ भाव से दूसरों का हित करें तथा आत्मचिंतन करता हुआ भीतर की अशुद्धियों पर दृष्टिपात करते हुए अंत:करण की शुद्धि करें ।
यह चैतन्य न कर्ता है और न ही भोक्ता है ।यह सबका साक्षी, निर्विकार, निरंजन, क्रिया रहित एवं समस्त संसार इसमें व्याप्त है । संसार उसी चैतन्य की अभिव्यक्ति है ।
भावाभावविहीनो यस्तृप्तो निर्वासनो बुध:!
नैव किञ्चित् कृतं तेन लोकदृष्ट्या विकुर्वता!!
प्रवृतो वा निवृतो वा नैव धीरस्य दुर्ग्रह: !
यदा यतकृतुमायाति तत्कृत्वा तिष्ठत: सुखम्!!
भावार्थ:- ज्ञानी तृप्त और वासना रहित होता है । बहुत कुछ करते रहने पर भी वस्तुत: वह कुछ नहीं करता ।
ज्ञानी का पसन्द- नापसंद को लेकर कोई हठ नहीं होता है। बाहर परिस्थितियां खराब होने पर भी भीतर से आनंद में रहता है ।
मुक्ति कैसे मिलती हैं ? | How do you get liberation ?
ऋषि अष्टावक्र जी कहते हैं कि विषयों से विरक्तता ही मोक्ष है । विषयों में रस है तो संसार है, जब मन विषयों से विरस हो जाता है, तब ही मुक्ति है। चैतन्य का ज्ञान हो जाना ही मुक्ति है ।
मुक्तिमिच्छसी चेत्तात, विषयान विषवत्यज |
क्षमार्जवदयातोष, सत्यं पीयूषवद्भज ||
यदि देहं पृथक् कृत्य चित्ति विश्राम्य तिष्ठसि!
अधूनैव सुखी शान्तो बन्धमुक्तो भविष्यसि!!
मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि!
किवदन्तीह सत्येयं या मति: सा गतिर्भवेत्!!
भावार्थ:- श्री अष्टावक्र जी राजा जनक से कहते हैं कि… यदि आप मुक्ति चाहते हैं तो अपने मन से विषयों अर्थात वस्तुओं के उपभोग की इच्छा को विष की तरह त्याग दीजिये । क्षमा, सरलता, दया, संतोष तथा सत्य का अमृत की तरह सेवन कीजिये । यदि आप स्वयं को इस शरीर से अलग करके, चेतना में विश्राम करें तो तत्काल ही सुख, शान्ति और बंधन मुक्त अवस्था को प्राप्त होंगे । स्वयं को मुक्त मानने वाला मुक्त ही है और बद्ध मानने वाला बंधा हुआ ही है, यह कहावत सत्य ही है कि जैसी बुद्धि होती है, वैसी ही गति होती है ।
कृत्यं किमपि नैवास्ति न कापि हृदि रञ्जना!
यथा जीवनमेवेह जीवन्मुक्तस्य योगिन:!!
भावार्थ:- हे राजन! जीवनमुक्त व्यक्ति का न तो कुछ कर्तव्य है और न ही उसके हृदय में कोई अनुराग है । जैसे भी जीवन बीत जाये वैसे ही उसकी स्थिति है ।
वैराग्य कैसे प्राप्त होता है ? | How to get disinterest?
सांसारिक पदार्थों में आंतरिक राग के अभाव का नाम ही वैराग्य है । वैराग्य भीतरी त्याग का वाचक है ।
वैराग्य का अर्थ है.. संसार की उन वस्तुओं एवं कर्मों से विरत होना है जिनमें सांसारिक लोग लगे रहते हैं ।
वैराग्य= वि+ राग अर्थात राग से विलग होना ।द्रष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यं
अर्थात मन पांच इन्द्रियों के विषय वस्तुओं से बने इस संसार की ओर भागता रहता है । इनसे विरक्त होना ही वैराग्य है ।
वैराग्य मन की वो दुर्लभ अवस्था है जो कि निष्काम चित्त से उत्पन्न होती है । वैराग्य उदासीनता और पलायनवादिता नहीं है बल्कि चित्त की वृतियों पर नियमन की साहसी और पराक्रमी प्रवृत्ति है । जहाँ अनुराग खत्म होता है, वहीं से वैराग्य का आरंभ होता है।
तपसामपि सर्वेषां वैराग्यं परमं तप:!
अर्थात यज्ञ, दान, योग, तीर्थ, व्रत, स्वाध्याय आदि पुण्य कर्मरूप सभी प्रकार की तपस्याओं में वैराग्य परम तप है, क्योंकि वैराग्य निष्काम भाव है ।
भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं,
माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम्!
शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं,
सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्!!
भावार्थ:-भोग में रोगादि का, कुल में गिरने का, धन में राजा का, मान में दैन्य का, बल में शत्रु का, रूप में बुढ़ापे का, शास्त्र में विवाद का, गुण में दुर्जन का और शरीर में मृत्यु का भय सदा ही बना रहता है । इस पृथ्वी पर मनुष्य के लिए सभी वस्तुएं भय से युक्त है| एक वैराग्य ही ऐसा है जो सर्वथा भय रहित है ।
न त्वं विप्रादिको वर्णों नाश्रमो नाक्षगोचर:!
असंगो हि निराकारो:विश्वसाक्षी सुखी भव!!
कृताकृते च द्वंद्वानि कदा शान्तानि कस्य वा!
एवं ज्ञात्वेद निवेदाद् भव त्यागपरोऽव्रती!!
भावार्थ:-हे राजन! तुम ब्राह्मण आदि वर्ण नहीं हो, न आश्रमी हो, न इन्द्रियों के विषय हो वरन तुम तो संग रहित, आकार रहित और विश्वसाक्षी हो, ऐसा मानकर सुखी बनो ।
यह कार्य करने योग्य है अथवा न करने योग्य और ऐसे ही अन्य द्वंद कब और किसके शांत हुए हैं । ऐसा विचार करके विरक्त हो जाओ और त्यागवान बनो ।
सार तत्व जिसका मन मस्त है, उसके पास समस्त है!
सदैव प्रसन्न रहिए !जो प्राप्त है, वह पर्याप्त है!!
⚛️🫥🌳🙇♂️ जय श्री कृष्णा 🙇♂️🌳🫥⚛️