मैं फिर भी जिंदा रह ही गया और यह कह ही नही सकता कि मौत हार गई क्योंकि उसने तो कल जीत ही जाना है। आज के दौर में आज की बात करना बैमानी सा है क्योंकि जुबांदराजी तो छोड़िए अब तो बोलने पर भी मुसाहिब ने पाबंदी लगा दी है।
आप को बुरा ना लगे तो अर्ज करू की आप अब से हल्की चीज़ो और बिना गैरत के किसी इंसान को कुछ भी कहने की आदत डाल लीजिए पर उसको "बाजारू" हरगिज मत कहिए क्योकि आज बाजार जीत गया है और उसने हर इंसानी जज्बात को निगल लिया है।
आप मानिए चाहे मत मानिए लेकिन मुसाहिबों को यह भी पता चल गया है कि इस जमीन की चमड़ी बहुत मोटी है उसे कोड़ो से लहलुहान कर दिजीये लेकिन यह धरती उफ तक नही करेगी। धरती इतनी गहरी है कि आप इसकी छाती पर कुदालो को कितना भी चला ले यह कुदाल उस पार तक निकल नहीं सकती।
बाजार ने यह भी जान लिया है कि इंसान की लालच कभी खत्म नही होगी और लालच जंग कराएगा ही अतः आज इस धरती को हजारों बार खत्म करने लायक असलाह तैयार कर लिया है।
इस असले के कारोबार के लिए दुश्मनियो की धरती पर बाजार खड़े कर लिए है। इस दुश्मनी को जारी रखने व बढाने के लिए रोज इंसानी जिंदगियों की बलि चढ़ाई जाती है। हर देश इस जंग में मुब्तिला है लेकिन उसके पास इसका मरकज़ नही।
इस दुनिया ने वह दौर भी देखा है जब लोग अपनी जरूरतों को हासिल कर पुरसकूँ जिन्दगी जीते थे तो बाजार ने आरामतलबी को ही जिंदगी की जरूरत बना दिया। इस आरामतलबी की हासिली हेतु बैंक बना कर जनता को आराम की लत लगा दी। अब किसी बैंक से अपने आराम के लिए रियाया इस बात से अनजान है कि उसकी आरामतलबी को उसकी सात पुश्तों भी चुका नही सकती और पुशतैनी माल-असबाब पर एक रोज बैंक ही काबिज होगा।
बस इतना ही जरूरी था कि इंसान एक सच्ची सी जिंदगी जी सके लेकिन ठेकेदारों ने धर्म का ईजाद कर दिया व छोटे दुकानदारों ने पाखण्ड की दुकान डाल ली, जहां आडम्बर, अंधविश्वास व डर का कारोबार आज परचम फहरा रहा है। धर्म के नाम पर बने ब्रांडों की आड़ में फिरके बन रहे है तदनुसार फिरकेबाजी बादस्तूर जारी है।
शिक्षा को सभी अपने अपने अनुसार समझते-समझाते आये है लेकिन मूलतः सभी मानते है कि शिक्षा का मौलिक उद्देश्य व्यवहारगत परिवर्तन है। सामान्य शिक्षा को विशेष करने की प्रक्रिया में यहाँ भी बाजार ने स्थान ढूंढ ही लिया। आज शिक्षा के बाजार में हर वह बुराई पिन्हा हो चुकी है जिसको कभी समाज मे टेढ़ी नजर से देखा जाता था।
पहले लोग मरने से डरते थे लेकिन अब बीमार होने के नाम पर डरते है क्योंकि बीमार की तीमारदारी में अब सेवा की कम एटीएम कार्ड की भारी जरूरत होती है और इस कार्ड से धन तब निकलता है जब बाजार से बचे। बाजार ने बहुत कुछ निगल लिया है व बाकी को निगलने हेतु तैयार है।
चलिए। कुछ और सोचते है, इस बाजार से लड़ कर भी क्या मिलेगा, बस एक नया बाजार।