पश्चिमी राजस्थान में विषम रेगिस्तानी इलाको में ग्रामीणों विशेषकर किसानों ने सदियों से विषम प्रकृति में स्वयम को समायोजित किया। विषम परिस्थितियों में "जल" व " खाद्यान्न" की सुरक्षा हेतु तत्कालिक समय मे अनेक स्वदेशी उपकरणों व आर्टिकल को निर्मित किया।
ऐसा ही एक स्वदेशी निर्माण "कोठार " अथवा "किराण" है। कोठार शब्द का आशय अन्न/धान इत्यादि को सुरक्षित रखने के स्थान से है। किराण में कृषक अपने खाद्यान को सुरक्षित रखते है। इसके निर्माण हेतु लकड़ी, घास-फूस, निपने के लिए गोबर व इसमें रखे खाद्यान को ढकने के लिए डोके (लकड़ियों) की जरूरत होती है। इसकी ऊँचाई 8-10 फ़ीट के करीब होती है। इसमें रखा खाद्यान 12 माह तक भी खराब नही होता व इसमे कोई जीव-जंतु भी उतपन्न नही होते है।
इसमे एक बार मे एक ही प्रकार का खाद्यान सुरक्षित रखा जाता है। एक बार किराण निर्मित हो जाने के बाद अनेकानेक वर्षो तक कार्य मे आता है। इसको सालों साल गोबर से लिपा जाता है। गोबर से निपने के कारण यह गर्म मौसम में भी उचित तापमान बनाये रखता है। वर्षा ऋतु में यह पूरी तरह से ढका होने के कारण अंदर से गीला नही होता है। सर्दी में वैसे भी जीव-जंतु कम उतपन्न होते है। धान फसल की कटाई के बाद उसे कोठार में रखने का कार्य आरम्भ किया जाता है।
बिना बिजली की यह व्यवस्था अत्यंत सफल व जनोपयोगी है। आज आवश्यकता है कि इन पर रिसर्च करके कम लागत के आधुनिक "किराण" बनाये जाए। आज के आधुनिक युग मे ग्रामीण इसका निर्माण कम सँख्या में कर रहे हैं। ग्रामीण पृष्टभूमि में उपलब्ध सामग्री से इसका निर्माण होने के कारण यह बहुत कम लागत में तैयार हो जाता है।
प्रेमचंद, शरतचंद्र , रवींद्रनाथ इत्यादी जैसे प्रसिद्ध भारतीय लेखकों की कहानियों व उपन्यासों में कोठार का वर्णन बहुलता में मिलता है जिनमे इन कोठारों में मणो धान रखने का जिक्र किया जाता है। इससे यह पता चलता है कि राजस्थान के अलावा सम्पूर्ण भारत मे इसी प्रकार फसल कटाई के पश्चात धान का सरंक्षण किया जाता था।