आइये समझे। गणित अर्थशास्त्र का।
चलो, करते है सीधी सी बात बिना मिर्च मसाला। अर्थशास्त्र की बात करते हैं। अव्वल तो इस ज्ञान को अर्थशास्त्रियों ने इतनी जटिल भाषा में लिखा है कि आम आदमी कि तो इसको समझने में तौबा बोल जाती है।
अर्थशास्त्र पर पहला प्रमाणिक भारतीय ग्रन्थ कौटिल्य रचित ” अर्थशास्त्र” है और अंतिम मान्यता प्राप्त भारतीय अर्थशास्त्री श्री अमर्त्य सेन है। इनके बीच में अनेक विद्वान आये है परंतु उनकी कही बात पुस्तकालयो की शोभा है अथवा अंग्रेजी के पत्रों में मूल रूप से छपे लेखों के विरूपित भारतीय भाषाओं में अनुवाद। जीडीपी, प्रति व्यक्ति आय, सीमान्त व्यक्ति, उपभोक्तावाद आदि आदि शब्दो के मकड़जाल में हमारा ज्ञान कही खो सा गया है।
चलो, देश की समग्र आर्थिक स्तिथि और तदनुसार देश के आर्थिक स्तर के आकलन पर बात करते हैं। सम्पूर्ण दुनिया के देशों को तीन स्तरों पर बाटा जाता है – विकसित, विकासशील और अविकसित। अस्सी के दौर की किताबो में छापा गया था कि हम विकासशील राष्ट्रों की श्रेणी में है और आज भी हम 50 साला प्रयास के बाद भी वही है। 1960 के दशक में चीन हमसे परम्परागत स्त्रोतो के आधार पर काफी पीछे था लेकिन आज वह एक आर्थिक व सामरिक शक्ति के रूप में हमसे काफी आगे हो गया है।
क्यों?
बस यह इकलौता सवाल समझ ले तो उसका हल काफी बातो पर प्रकाश डाल देगा।
एक व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज व समाज से राष्ट्र का निर्माण होता है। उसी प्रकार व्यक्ति की बचत से परिवार के लिए और परिवार की बचत से समाज के लिए और समाज की बचत से राष्ट्र के लिए फंड एकत्र होता है। अब गौर से देखे तो कहाँ है बचत? व्यक्ति उपभोग में , परिवार दिखावे में और समाज जब आर्थिक घोटालो में लिप्त होगा तो देश के लिए फंड कहाँ से आएगा?
मात्र फंड एकत्र होना ही विकास का परिचायक नहीं हो सकता जब तक की आंतरिक संसाधनों का अधिकतम व कुशलतम उपयोग सुनिश्चित ना हो जाए। विकास अनेक सुअवसरों व कौशल के सामाजिक उपयोग से सीधा सम्बंधित हैं।
एक व्यक्ति के रूप में हमारा दायित्व है कि हम न्यूनतम सुविधाओं का प्रयोग कर आवश्यकता आधारित जीवन व्यतीत करे व देश के लिए सामूहिक फंड वर्द्धि हेतु प्रयास करे।
शेष सब कुशल है।