एक मुहिम : वर्ष में एक महीना किश्त मुक्त हो।
आज देश प्रगति के पथ पर बढ़ रहा है। बजट व अन्य निर्णयों के आधार पर एक आम आदमी से सम्बंधित मुद्दे निर्धारित होते है। आजकल अर्थशास्त्र भी अनेक टेक्निकल टर्म्स के चलते साधारण बुद्धि-समझ के बाहर का विषय हो गया है। आम आदमी साधारण भाषा समझता है और सीधी सी मांग रखता है, जो कि इस आलेख में निवेदित है।
विकास बिना धन के नहीं हो सकता और धन बिना ऋण लिए प्राप्त नहीं होता है। एक आम आदमी आज घी पीने के लिए ऋण नहीं लेता अपितु मकान बंनाने, इलाज़ करवाने, सामाजिक दायित्व निभाने और बच्चों को पढ़ाने के लिए ऋण लेता है। ऋण लेते समय वह अनुबन्ध को आँख पर पट्टी बाँध कर दस्तखत करता है, हालांकि वह पढ़ा-लिखा है और अनुबन्ध को पढ़ कर समझ भी सकता है लेकिन आवश्यकता की तीव्रता उसे ऐसा करने नहीं देती है।
ऋण प्राप्त होने पर उसे तत्कालिक ख़ुशी का आभास पहली किश्त के बैंक में लगने तक ही रहता है। पहली किश्त के साथ ही शुरू होता है एक अंतहीन सफर। ऋण के कारण उसकी बचत क्षमता कम हो जाती है पर आवश्यकता कहा रूकती है? एक के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी आवश्यकता और उसकी पूर्ति हेतु क्रमशः ऋण और क्रमशः किश्ते।
आवश्यकता-ऋण-किश्त के इस दुष्चक्र में आम आदमी आकंठ उलझ जाता है। एक तारीख को वेतन, पाँच-सात-दस तारीख को किश्ते और फिर इकत्तीस तारीख तक का समायोजित जीवन, यही जीवन है आज के इंसान का। ठीक-ठाक वेतन के बावजूद भी उसे तनिक भी आर्थिक उदारता उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में अगर कोई किश्त बाउंस हो गई तो भारीभरकम पेनल्टी और काल सेंटर के कर्कश फोन कॉल्स उसका जीवन दूभर कर डालते हैं।
सामाजिक जीवन में कई मौके आते है जब इंसान कुछ लम्हे ख़ुशी के चाहता है और आज के दौर में ख़ुशी धन के बिना सम्भव नहीं और किश्ते धन को लील जाती है। ऋणग्रस्त शख़्स के लिए ख़ुशी का आयोजन कदापि सम्भव नहीं।
ऊपर आलेख का मजमून बस इतना है कि वित्तमंत्री महोदय यह आदेश फ़रमा करे कि ऋणी को नए/पुराने सभी ऋणो पर वर्ष में एक बार ” इंस्टालमेंट हॉलिडे” हासिल हो, वह वर्ष में 12 में से एक किश्त अपनी इच्छानुसार ना चुकाए, चाहे उसकी ऋण पुनर्भुगतान अवधि में बढ़ोतरी हो जाए लेकिन इस “इंस्टालमेंट हॉलिडे” माह की उस पर पैनल्टी आयद ना हो, काल सेंटर्स के अवांछित संदेश उसे तंग ना करे।
आखिर। हर शख्स का अख्तियार खुशियों पर रहना चाहिए चाहे उस पर ऋणी का लेवल भी क्यों ना चस्पा हो।